मध्य एशिया का तूफान
मध्य एशिया के बंजर मैदानों में, जहां साल के ज्यादातर महीने बर्फ जमी रहती है और हवाएं चाबुक की तरह बरसती हैं, एक ऐसी कौम ने जन्म लिया जिसे दुनिया मंगोल के नाम से जानती है। चंगेज़ खान के नेतृत्व में इस खानाबदोश कौम ने एक ऐसी अजेय ताकत बनाई, जिसके सामने बड़ी-बड़ी सल्तनतें ताश के पत्तों की तरह ढह गईं। 13वीं सदी के मध्य तक, चंगेज़ खान की मृत्यु के बाद, उनके पोतों ने उनकी विजय की विरासत को आगे बढ़ाया। इनमें से एक थे हलागू खान, जिन्हें पश्चिम की ओर बढ़ने और तब तक न रुकने का मिशन मिला था, जब तक उनके घोड़ों के खुर भूमध्य सागर के पानी को न छू लें। रास्ते में आने वाली हर सल्तनत को या तो झुका देना था या मिटा देना।
हलागू ने एक विशाल सेना तैयार की, जिसमें सिर्फ मंगोल ही नहीं, बल्कि चीनी इंजीनियर, जो पत्थर फेंकने वाली विशाल मशीनें चलाते थे, आर्मेनियाई ईसाई सैनिक, जो मुसलमानों से पुरानी दुश्मनी का बदला लेना चाहते थे, और पारस के सैनिक, जो पहले ही मंगोलों के सामने झुक चुके थे, शामिल थे। यह सेना सिर्फ लड़ना नहीं, बल्कि शहरों को नेस्तनाबूद करना जानती थी। इसका पहला बड़ा निशाना था बगदाद, जो उस समय इस्लामी दुनिया का दिल था।
बगदाद का पतन
13वीं सदी में बगदाद सिर्फ एक शहर नहीं, बल्कि ज्ञान, संस्कृति और सत्ता का केंद्र था। 500 सालों से यह अब्बास सल्तनत की राजधानी था, जहां दुनिया भर के विद्वान, वैज्ञानिक और कवि इकट्ठा होते थे। बैत अल हिकमत नामक इसकी लाइब्रेरी में हजारों किताबें थीं, और दजला (टिग्रिस) नदी के किनारे बने महल अपनी खूबसूरती के लिए मशहूर थे। लेकिन जनवरी 1258 में हलागू की सेना ने बगदाद को चारों ओर से घेर लिया। खलीफा अल मुस्तसिम ने चेतावनी दी कि अगर बगदाद पर हमला हुआ, तो पूरब से पश्चिम तक के मुसलमान उनके लिए लड़ने आएंगे। लेकिन यह उनकी सबसे बड़ी भूल थी, क्योंकि कोई भी मदद के लिए नहीं आया।
मंगोलों ने शहर के बाहर खाइयां खोदीं, पत्थर फेंकने वाली मशीनें तैनात कीं, और दीवारों पर इतने भारी पत्थर बरसाए कि वे टूटने लगीं। 10 फरवरी को मंगोल सैनिक टूटी दीवारों से शहर में घुस गए, और इसके बाद जो हुआ, वह इतिहास के सबसे काले पन्नों में दर्ज है। एक हफ्ते तक बगदाद में कत्लेआम मचा। गलियां खून से लाल हो गईं, महल, मस्जिदें और अस्पताल जलकर राख हो गए। बैत अल हिकमत की लाखों किताबें दजला नदी में फेंक दी गईं, जिससे नदी का पानी कई दिनों तक काला रहा। खलीफा को एक कालीन में लपेटकर सैकड़ों घोड़ों से कुचलकर मार दिया गया, ताकि उसका शाही खून जमीन पर न बहे—मंगोलों का एक अंधविश्वास।
बगदाद की तबाही की खबर ने मुस्लिम दुनिया में हड़कंप मचा दिया। मंगोल एक ऐसा खौफ बन गए थे, जिसका कोई तोड़ नहीं दिख रहा था। अब हलागू की नजर सीरिया और फिर मिस्र पर थी।
मामलूकों का उदय
नील नदी के किनारे, इस्लामी दुनिया की आखिरी बड़ी ताकत—मामलूक सल्तनत—सांस ले रही थी। मामलूक, जिनका अरबी में मतलब है “वह जिस पर किसी का हक हो,” यानी गुलाम, इतिहास के सबसे अनोखे शासक थे। ये लोग कभी सचमुच गुलाम थे। सैकड़ों सालों से मिस्र के सुल्तान, खासकर सलाद्दीन के अयूबी वंश, अपनी सुरक्षा के लिए भाड़े के सैनिकों की जगह बाजारों से छोटे लड़के खरीदते थे। ये ज्यादातर किपचक तुर्क थे, जो काले सागर और मध्य एशिया के बीच के इलाकों से आते थे। मंगोल हमलों के कारण अनाथ हुए इन बच्चों को काहिरा के सैन्य स्कूलों में लाया जाता था, जहां उन्हें मुसलमान बनाया जाता, अरबी सिखाई जाती, और दुनिया की सबसे कठिन सैन्य ट्रेनिंग दी जाती।
उन्हें घुड़सवारी, तीरंदाजी और रणनीति में माहिर बनाया जाता था। वे तूफानी रफ्तार से घोड़े दौड़ाते हुए पलक झपकते सटीक निशाना लगाना सीखते थे। ट्रेनिंग के बाद उन्हें आजाद कर दिया जाता और सल्तनत की सेना में बड़े पद दिए जाते। यही मामलूक थे, जो बाद में मिस्र के सुल्तान भी बने। 1260 में मिस्र के सुल्तान थे सैफुद्दीन कुतुस, जो खुद कभी मंगोलों द्वारा गुलाम बनाकर बेचे गए थे।
ऐन जालूत की जंग: एक निर्णायक मोड़
मंगोलों के हमले के समय कुतुस को एक बड़े खतरे का सामना था। मामलूक आपस में ही प्रतिद्वंद्विता और साजिशों में उलझे थे। मंगोलों से लड़ने के लिए कुतुस को अपने सबसे काबिल और खतरनाक जनरल, रुकनुद्दीन बेबर्स, की जरूरत थी। बेबर्स, एक किपचक तुर्क, जिसे एक आंख में मोतियाबिंद के कारण “खराब माल” समझा गया था, एक क्रूर और बहादुर योद्धा था। कुतुस के खिलाफ साजिश रचने के कारण उसे देश निकाला मिला था, लेकिन मंगोलों के खतरे ने उन्हें फिर से एकजुट किया।
इस बीच, मंगोलों के सबसे बड़े खान, मोंके खान, की चीन में मृत्यु हो गई। हलागू, जो खुद अगला खान बनने का दावेदार था, को मंगोल परंपरा के अनुसार राजधानी काराकोरम लौटना पड़ा। उसने सीरिया में अपनी सेना का एक हिस्सा—लगभग 20,000 सैनिक—अपने भरोसेमंद जनरल किदबुका नोयन के नेतृत्व में छोड़ दिया। किदबुका एक अनुभवी तुर्क ईसाई योद्धा था, जिसे मंगोलों की अजेयता पर पूरा भरोसा था।
कुतुस ने मौके का फायदा उठाया। मिस्र में मंगोलों के हमले का इंतजार करने के बजाय, उन्होंने अपनी सेना को फिलिस्तीन की ओर बढ़ाया। रास्ते में, उन्होंने क्रूसेडर्स, जो मामलूकों के पुराने दुश्मन थे, से एक कूटनीतिक जीत हासिल की। क्रूसेडर्स ने मामलूकों को अपनी जमीन से गुजरने और रसद खरीदने की इजाजत दी, मंगोलों का साथ देने से इनकार करते हुए।
3 सितंबर 1260 को दोनों सेनाएं ऐन जालूत, यानी “गोलायत का चश्मा,” के मैदान पर आमने-सामने आईं। यह जगह बाइबल की कहानी “डेविड और गोलायत” से जुड़ी थी, जहां कमजोर ने ताकतवर को हराया था। मंगोलों, जिनकी कमान किदबुका के हाथ में थी, ने मामलूकों के छोटे से अगले दस्ते को देखकर सोचा कि यही उनकी पूरी सेना है। किदबुका ने पूरे जोश में हमला किया, लेकिन यह बेबर्स का जाल था।
बेबर्स ने अपने सैनिकों को नकली हार का नाटक करते हुए पीछे हटने का आदेश दिया। मंगोल, जीत के जोश में, उनका पीछा करते हुए एक घाटी में घुस गए। तभी कुतुस ने अपनी मुख्य सेना के साथ हमला बोला। तीन तरफ से घिरे मंगोल घबरा गए। किदबुका ने जवाबी हमला किया, और एक पल के लिए लगा कि मंगोल घेराबंदी तोड़ देंगे। लेकिन कुतुस ने अपना शाही हेलमेट उतारकर “या इस्लामा” का नारा लगाया और अपनी रिजर्व सेना के साथ मैदान में कूद पड़े। इससे मामलूक सैनिकों में जोश भर गया, और मंगोलों की पंक्तियां टूट गईं। किदबुका को जिंदा पकड़ लिया गया और कुतुस के आदेश पर उसका सिर काट दिया गया।
जंग का परिणाम और विरासत
ऐन जालूत की जंग ने इतिहास बदल दिया। 50 सालों में पहली बार मंगोलों को इतनी बुरी तरह हराया गया था, जिसने उनकी अजेयता का मिथक तोड़ दिया। दमिश्क और अलेप्पो में लोगों ने सड़कों पर जश्न मनाया। लेकिन इस जीत की कहानी में एक और मोड़ बाकी था। बेबर्स, जिसे लगा कि कुतुस ने सारा श्रेय ले लिया, ने शिकार के बहाने कुतुस का कत्ल कर दिया और खुद को मिस्र का सुल्तान घोषित किया।
बेबर्स ने 17 साल तक शासन किया और मामलूक सल्तनत को इस्लामी दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बनाया। उन्होंने मंगोलों और क्रूसेडर्स को कई बार हराया। लेकिन इस जंग का सबसे बड़ा प्रभाव मंगोलों पर पड़ा। चंगेज़ खान का विशाल साम्राज्य उनके पोतों में बंट गया था। हलागू का इलखानेट (फारस और इराक) और उनके चचेरे भाई बरके खान का गोल्डन होर्ड (रूस और मध्य एशिया) दो मुख्य हिस्से थे। बरके, जो पहले ही इस्लाम कबूल कर चुके थे, बगदाद की तबाही से गुस्से में थे। ऐन जालूत की जीत ने उन्हें हलागू के खिलाफ बेबर्स से गठबंधन करने का मौका दिया।
मंगोलों की आपसी लड़ाई ने हलागू को कमजोर कर दिया, और वह फिर कभी मिस्र पर हमला नहीं कर सका। कुछ दशकों बाद, हलागू के पड़पोते गाजान खान ने इस्लाम कबूल किया, और इलखानेट के ज्यादातर मंगोल मुसलमान बन गए। जो मंगोल कभी इस्लाम को मिटाने निकले थे, वे अब उसी धर्म का हिस्सा बन चुके थे।
निष्कर्ष
ऐन जालूत की जंग सिर्फ एक सैन्य जीत नहीं थी; यह एक ऐसा क्षण था जिसने एक सभ्यता को बचाया और मंगोलों को हमेशा के लिए बदल दिया। बगदाद की राख से लेकर गोलायत के चश्मे की जीत तक, इस जंग ने साबित किया कि सबसे ताकतवर साम्राज्य को भी चुनौती दी जा सकती है। गुलामी से निकले मामलूकों ने न सिर्फ इस्लाम को बचाया, बल्कि अपने पूर्व शत्रुओं को भी बदल दिया, और इतिहास में एक ऐसी विरासत छोड़ी जो आज भी गूंजती है।